श्राद्ध पक्ष चल रहा है, साथ ही संझा पर्व का वक्त भी। सांझ के वक्त मदमस्त चलती बयारों के बीच अगर आपका मन मयुर हो उठे और मन करे चित्ताकर्षक हाथ से बनाई संझा के दर्शन की, इच्छा हो संझा गीतों को सुनने की, तो आपको मशक्कत करनी पड़ सकती है, क्योंकि आपकी ये चाहत सहज में पूरी नहीं हो सकती।
अब ‘संझा’ के लिए बच्चियों, लड़कियों, युवतियों के पास वक्त नहीं है। उन्हें अब पढ़ाई की टेंशन है, उनका ध्यान अब कॅरियर की ओर है और फिर संझा बनाना, मनाना और संझा के गीत गाना अब पिछड़ेपन की निशानी मानी जाती है। यही कारण है कि शहर की पॉस कॉलोनियों में नहीं, निम्नमध्यमर्गीय कॉलोनियों में वह भी बहुतायात में नहीं कहीं-कहीं रस्म अदायगी के लिए संझा बनाई हुई नहीं, चिपकाई हुई मिलेगी। कहीं आपको गीत सुनाई दे तो आपका नसीब और आपको गोबर द्वारा हाथ से बनाई संझा के दर्शन हो जाएं तो आप भाग्यशाली, सौभाग्यशाली! स्पष्ट है संझा पर्व विलुप्ति के कगार पर खड़ा है।
एक वक्त था जब श्राध्द पक्ष में सांझ ढलने को होती और बालिकाएं, लड़कियां, युवतियां संझा की आरती की तैयारी करने लगतीं, घर की दिवार पर चौकुनाकार में गोबर से लीप कर संझा बनाना शुरू करतीं, उस पर फूल पंखुडियां आदि लगातीं, सजातीं और मोहल्ले भर की सहेलियों को बुलाकर संझा के गीत गातीं, आरती उतारतीं, प्रसाद बांटतीं और फिर दूसरी सहेली के घर जाकर वहां भी इस क्रम को दोहराती। दूसरे दिन फिर से दिवाल के उस स्थान को लीपा जाता, जहां संझा बनाई जाती थी और फिर नई संझा बनातीं और फिर वहीं क्रम चलता… रोज नई संझा बनती…
वक्त बदला, वक्त के साथ-साथ लोगों का नजरिया बदला और गोबर से बनने वाली संझा का स्थान बाजार में मिलने वाले प्रिंटेड संझा के पाने ने ले लिया। संझा के पाने ने रोज-रोज गोबर में हाथ करने की मशक्कत को बचा लिया या यूं कही सृजनात्मकता को गृहण लगायाञ रोज रोज संझा बनाने की अब जरूरत नहीं पड़तीं थी, क्योंकि एक ही पाना रोज काम में आ जाता है। फिर भी लड़कियों, युवतियों, बालिकाओं में संझा के प्रति उत्साह बरकरा रहता। चाहे संझा के पाने ने गोबर द्वारा हाथ से बनाई जाने वाली संझा का स्थान ले लिया हो, लेकिन सांझ ढलते ही संझा के गीत मस्त बयारों के बीच सुनाई देने लग जाते।
स्पष्ट रूप से संझा के दो रूप सामने आए, एक ही मोहल्ले में कहीं हाथ से बनाई गई गोबर की संझा की आरती होती, तो कहीं प्रिंटेड पोस्टररूपी संझा की आरती, लेकिन गीतों दौर बदस्तूर जारी रहता।
फिर बदला वक्त, वक्त के साथ लोगों की सोच बदली। अब अभिभावकों के साथ बच्चों का ध्यान केन्द्रित हुआ केरियर की ओर। बच्चों पर बढ़ा पढ़ाई का दबाव। जाहिर सी बात है, संझा पर्व पर भी पढ़ा इसका प्रभाव। अब लड़कियों, युवतियों, बच्चियों को पढ़ाई की चिंता सताती है। उनके पास वक्त इतना वक्त नहीं है कि संझा के गीता गा लें, इतना टाईम नहीं है कि संझा और कॅरियर दोनों पर भी ध्यान दे लें और संझा के गीत भी याद कर लें।
आज के समय में गोबर से बनी संझा के दर्शन शायद ही किसी के हो, पूरी तरह से बनाई जाने वाली संझा का स्थान रेडिमेड संझा के पाने ने ले लिया है। बीच के दौर में जैसे कहीं गोबर की हाथ से बनाई हुई, तो कहीं रेडीमेड संझा देखने को मिल जाती थी, ठीक ऐसे ही कहीं आज संझा के पोस्टर मिलेंगे, तो कहीं संझा मनाई और बनाई ही नहीं जा रही है।
अगर कहीं पर संझा बनाई जा रही है, और गीत गाने का समय है, तो जल्दी-जल्दी में गीत गा लिए, नहीं तो फटाफट आरती कर ली और फिर अपने काम पर लग गए।
बहुतायात में अब संझा के गीत गली मोहल्लों में नहीं गुंजते हैं, अब बस रस्म अदायगी के लिए संझा की पूजा-आरती होती है, वह भी कम ही जगह पर। हालांकि, गांवों में आज भी कहीं संझा के गीत सुनाई, तो देते हैं, लेकिन वहां भी वो उत्साह, उमंग देखने को नहीं मिलता, जो कभी मिलता था।
आज के समय में स्पष्ट रूप से गोबर की बनाई हुई संझा का स्थान बाजार में मिलने वाले रेडिमेड प्रिंटेड संझा के पाने ने ले लिया है। शायद ही कोई को जिसके पास गोबर द्वारा हाथ से बनाई गई संझा का छाया चित्र भी हो। होगा कहां से संझा का स्वरूप बदल गया है।
अभी वो दौर चल रहा है, जिसमें हाथ से बनाई गई संझा विलुप्त सी हो गई है, अब चित्ताकर्षक संझा देखने को नहीं मिलती। संझा के गीत शाम के समय बहुतायात में सुनाई नहीं देते, कुछ जगहों पर ही संझा गीत की रस्म अदायगी की जाती है। पढ़ाई और केरियर का टेंशन जो रहता है।
अगर यही दौर बदस्तुर जारी रहा, तो वह दिन दूर नहीं, जब संझा पर्व इतिहास की बात हो जाएगा। जैसे हाथ से बनाई हुई चित्ताकर्षक संझा के दर्शन दुर्लभ हो गए है, जैसे संझा गीत बहुतायात में सुनाई नहीं देते, ठीक वैसे ही वह दौर भी आ जाए तो कोई आश्चर्य नहीं हो, जब कहीं-कहीं संझा के पाने तो दिखें, लेकिन गीत गाने का थोड़ा भी समय न हो। भविष्य में आरती-पूजन की रस्म अदायगी भी हो जाए, तो बड़ी बात होगी।
पॉश कॉलोनियों से संझा हुई नदारद
अब रस्म अदायगी के लिए संझा बनाई (माफ कीजिए चिपकाई) जाती है, तो निम्न व मध्यमवर्गीय कही जाने वाली कॉलोनियों में। पॉश कॉलोनियों से संझा नदारद हो गई है। साफ है, संझा के गीत गाना, बनाना, मनाना पिछड़ेपन की निशानी मानी जाती है। सभ्रांत कहे जाने वाली परिवारों की लड़कियों के पास न तो वक्त है, न संझा बनाने, मनाने और गीत गाने की ईच्छा।
संझा गीत
संजा जीम ले, चुठ ले, थने जिमऊं मैं सारी रात, चट्टक चांदी सी रात, फूला भरी रे परात, एक फूलो टूट ग्या, संजा माता रूठ गी…
काजल टीकी लो भई, काजल टिकी लो,, काजल तिटकी लइने म्हारी संजा बाई ने दो, संजा बाई को सासरों, सांगा में, पद्म पदानी बड़ी अजमेर…
मैं कोट चड़ा चढ़ देखूं म्हारो कौन सो वीरो आयो, चांद-सूरज वीरो आयो, घोड़ा पे बैठी ने आयो…
संजा वो की, सोली वो…. आदि गीत शाम के वक्त सुनाई देने शुरू हो गए हैं।
-पंकज व्यास
4 comments:
पंकज व्यास जी!
दुनिया अब बदल गई है।
रीति-रिवाजों को लोग भूलने लगे हैं।
लडकियों के हिस्से जिन रीति रिवाज का जिम्मा था .. वह तो पढाई के बढते दबाब ने समाप्त कर ही दिया है .. कुछ पिक्चरों और सीरियलों में अंधविश्वास फैलाने की जगह इन रीति रिवाजों को दिखाया जाना चाहिए .. शायद इनका स्वस्थ प्रचार प्रसार हो जाए !!
सही है ये संझा हमने भी आखिरी बार दस साल पहले झाबुआ में देखी थी, बहुत दिनों बाद संझा गीत की झलक मिली, आजकल की लड़कियाँ तो टी.वी. में या कहीं और व्यस्त हैं, सांस्कृतिक विरासत संभालने के लिये उनके पास समय नहीं हैं।
आधुनिकता के मार्ग पर तेज गति से दौड़ते हम अपने पैरों के नीचे रीति रिवाजों को रौंदते जा रहे हैं....किसे फुर्सत है कि इनकी सुध ले...
सुन्दर आलेख हेतु आभार.
Post a Comment